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सूरत में चातुर्मास प्रवचन: श्रास्वतसागर जी म.सा. ने बताया – सच्चा सुख आत्मा में, भ्रम से करें किनारा

जैसे अंधकार को हटाने के लिए झगड़ा नहीं, दीया चाहिए – वैसे ही मोह को हराने के लिए जिनवाणी, गुरु के आदर्श और आत्मज्ञान का प्रकाश जरूरी है।

सूरत (योगेश मिश्रा) शहर में चातुर्मास प्रवचन: श्रास्वतसागर जी म.सा. ने बताया – सच्चा सुख आत्मा में, भ्रम से करें किनारा चातुर्मासिक धर्मप्रवचन: आज कुशल दर्शन दादावाड़ी, पर्वत पाटिया,सूरत 

 

सूरत में खरतरगच्छाचार्य छतीसगढ़ श्रृंगार संयम सारथी शासन प्रभावक श्री जिन पीयूषसागर सूरीश्वरजी जी म.सा. के शिष्य प.पु. श्री श्रास्वत सागर जी म.सा. ने “सच्चा सुख – भ्रम और यथार्थ का बोध” पर आज के प्रभावशाली प्रवचन में जीवन के सबसे बड़े प्रश्न – “सच्चा सुख किसके पास है?” – का मर्मस्पर्शी विवेचन किया। उन्होंने कहा कि:

“हम संसारिक सुख को ही वास्तविक मान बैठे हैं, जबकि असली सुख तो आत्मा का स्थायी सुख है। जो सुख क्षणिक (relative) है, जो विषयों और वस्तुओं पर आधारित है, वह कभी स्थायी नहीं हो सकता।

”भ्रमित मनुष्य ‘नकली को ही असली’ मानकर जीवन खपा रहा है – यही आज की सबसे बड़ी त्रासदी है जीवन में ‘यू-टर्न’ लेना जरूरी है – बाहर की दौड़ से लौटकर भीतर की आत्मा में स्थायी शांति को खोजना होगा। जिस प्रकार कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि में सुगंध लिए होता है फिर भी जंगल-जंगल भटकता है, वैसे ही हम भी बाहरी सुखों के पीछे दौड़ते रहते हैं, जबकि आत्मिक शांति हमारे भीतर है।

सच्चा सुख क्या है?

 • स्थायी (Permanent)

   • शुद्ध (Pure)

   • आत्मिक (Spiritual)

   • और मोक्ष में ही प्राप्त होता है।मोक्ष ही एकमात्र ऐसा सुख है जहाँ न शरीर है, न कर्म, न अपेक्षा – केवल शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार है।दुनिया का सुख तो पाप-पुण्य का संतुलन है, ये भी एक दिन समाप्त हो जाता है। जबकि आत्मा का सुख – नाश रहित और शाश्वत है। ज्ञानी पुरुष धर्म में जुड़े रहते हैं, लेकिन प्रश्न ये है – “जुड़े तो हैं, पर मुड़े कितने?”

 • केवल धर्मक्षेत्र में बैठ जाना काफी नहीं, आचरण में धर्म का जागरण होना आवश्यक है। जैसे “कोई व्यक्ति प्रवचन में बैठा है, पर घड़ी की ओर बार-बार देख रहा है – इसका अर्थ है कि वह शरीर से यहाँ है, पर मन से कहीं और।”

– धर्मक्षेत्र में बैठकर भी पाप का अलार्म बजता है, पर जब भोगों में लिप्त रहते हैं, तब वह अलार्म ही बंद रहता है । उन्होंने फरमाया की “चातुर्मास आत्मिक जागरण और आचरण सुधार का अवसर लेकर आया है । जिनवाणी का श्रवण करते हुए बाह्य आकर्षण से निकलकर भीतर की आत्मा के सच्चे सुख की यात्रा प्रारंभ करनी चाहिए। अर्थात वास्तविक पुरुषार्थ उन्हीं का है जो आत्मा के सुख की खोज में लगे हैं – न कि केवल संसारिक सुखों के पीछे। पूज्य श्री समर्पितसागर जी म.सा. ने अपने प्रबचन में आज “समर्पण और पुरुषार्थ: मोह पर विजय की साधना” पे प्रकाश डालते हुए कहा की  जीवन में सच्चे आत्मिक विकास के लिए ‘समर्पण’ और ‘पुरुषार्थ’ के संतुलन को आवश्यक बताया। उन्होंने अत्यंत सरल, परंतु गूढ़ उदाहरणों द्वारा समझाया कि केवल प्रार्थना करने से नहीं, प्रार्थना के साथ पुरुषार्थ करने से ही जीवन में सही दिशा और सिद्धि मिलती है। उन्होंने एक प्रसंग मे दो स्कूल जा रहे विद्यार्थियों की कथा सुनाई:

 1. स्कूल में लेट होने के भय से एक बच्चा दंड के भय से प्रार्थना करता है – “हे प्रभु, मुझे समय से पहुँचा देना, नहीं तो मुझे दंड मिलेगा।”

 2. दूसरा बच्चा पुरुषार्थ करता है – “मैं आगे बढ़ रहा हूँ, मुझे समय पर पहुँचना है।” पहले में समर्पण है, दूसरे में पुरुषार्थ। जीवन की सफलता तभी मिलती है जब समर्पण और पुरुषार्थ का संतुलन हो। प्रार्थना के साथ पुरुषार्थ अनिवार्य है – बिना प्रयास के फल नहीं मिलता। सेनापति के बिना सेना का कोई मूल्य नहीं, वैसे ही पुरुषार्थ के बिना ज्ञान व्यर्थ है। व्यक्ति के जीवन में  मोहनीकर्म सबसे गहरा शत्रु है – यदि उसे जड़ से उखाड़ दिया जाए, तो अन्य तीन घातक कर्म स्वयं कमजोर हो जाते हैं। मोह – सबसे सूक्ष्म और खतरनाक कर्म

 

  • मोहनीय कर्म को पूज्य म.सा. ने नशे में डूबे शराबी से तुलना की – जो गटर का पानी पीकर भी उसे गंगाजल समझता है।

• शरीर और मन, दोनों को मोह की गिरफ्त में यातना सहनी पड़ती है।

 • शराब का नशा कुछ घंटों में उतर जाता है, पर मोह का नशा भवों तक पीछा नहीं छोड़ता। मोह पर विजय कैसे मिले? उसके लिए व्यक्ति को 

 • मोह से लड़ाई नहीं होती, उसे ‘प्रकाश’ से दूर किया जाता है।

  • जैसे अंधकार को हटाने के लिए झगड़ा नहीं, दीया चाहिए – वैसे ही मोह को हराने के लिए जिनवाणी, गुरु के आदर्श और आत्मज्ञान का प्रकाश जरूरी है।

साधना में समर्पण का महत्व – ‘पनिहारी’ का उदाहरण:

पूज्य म.सा. ने कहा, जैसे एक पनिहारी पानी से भरा मटका सिर पर रखकर हाथ छोड़ देती है, वैसे ही जब कोई साधक गुरु से आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो वह जीवन की सीढ़ियाँ बिना बाहरी सहारे के चढ़ सकता है। परंतु शुरुआती भराव में गुरु का हाथ अनिवार्य है। जैसे पनिहारी का खाली मटका कमर पे होता है तब तक हाथ से पकड़ा रखना होता । अर्थात “आलोकमय, प्रकाशमय जीवन बनाना है तो मोह पर विजय और आत्मा को जितना अनिवार्य है । पुरुषार्थ करो, पर समर्पण के साथ। साधना करो, पर गुरु के प्रकाश से। तभी मिलती है सच्ची सिद्धि और स्थायी सुख।”बाड़मेर जैन श्री संघ के चम्पालाल बोथरा ने बताया कि सभा में बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने उपस्थित रहकर प्रवचन श्रवण किया और संयम-साधना के पथ पर अग्रसर होने का संकल्प लिया।

प्रस्तुतकर्ता:-चम्पालाल बोथरा

 

 

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